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संपादकीय

आत्मघाती खनन

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शीर्ष अदालत द्वारा अरावली की गायब हुई पहाड़ियों के बाबत की गई टिप्पणी ने पूरे देश को चौंकाया है। राजस्थान में तीस से ज्यादा पहाड़ियों का नामोनिशान मिटना उस भयावह सच को बताता है जो हमारे पारिस्थितिकीय तंत्र को झिंझोड़ रहा है और जैव विविधता के लिये खतरनाक संकेत है। ये पहाड़ियां दिल्ली समेत गंगा के मैदानी इलाकों के मौसम, बारिश के पैटर्न, तापमान और प्रदूषण के स्तर को प्रभावित करती रही हैं। कमोबेश यह स्थिति सिर्फ राजस्थान की ही नहीं है बल्कि हरियाणा में भी है। अवैध खनन पर अदालतें और ग्रीन ट्रिब्यूनल गाहे-बगाहे चिंता जताते हुए सरकार को चेतावनी देते रहे हैं। दुर्भाग्य से यह स्थिति सारे देश में है और राजनीतिक दलों व नेताओं की कमाई का बड़ा जरिया अवैध खनन रहा है। जिसके चलते प्रकृति के इस निर्मम दोहन के खिलाफ कोई मजबूत आवाज नहीं उभरती। पिछले दिनों केरल में आई बाढ़ के बाद भूस्खलन को भी अवैध खनन की देन बताया गया। माना कि राज्य सरकारों को इस खनन व्यवसाय से हजारों करोड़ों का लाभ होता है, मगर जो नुकसान होता है, उसकी कीमत आने वाली पीढ़ियां भी चुकाएंगी। जिसको लेकर देश की शीर्ष अदालत बार-बार चेता रही है।
विडंबना है कि अरावली पर्वतमाला की तीस पहाड़ियां गायब हो जायें और राजस्थान सरकार हाथ पर हाथ धरे बैठी रही। यही वजह है कि शीर्ष अदालत ने अड़तालीस घंटे में खनन रोकने के आदेश दिये और साथ ही अदालत में इस बाबत हलफनामा दायर करने को कहा है। जाहिरा तौर पर इन पहाड़ियों का गायब होना मौजूदा सरकार की कारगुजारियों की ही देन नहीं है बल्कि यह सिलसिला कई दशकों से चला आ रहा है। फिर भी मौजूदा सरकार इस मामले में गंभीर नजर नहीं आती। चिंता की बात यह भी है कि राजस्थान के इन इलाकों में दिल्ली की तरफ रेतीले इलाके का विस्तार हो रहा है, जिससे बड़े  क्षेत्र में भूमि की उर्वरकता प्रभावित हो रही है। कहीं न कहीं मानसून के मिजाज में जिस तरह बदलाव आ रहा है और दिल्ली की आबोहवा में प्रदूषण की अप्रत्याशित वृद्धि हो रही है, उसके मूल में यही मानवीय हस्तक्षेप भी एक बड़ा कारक है, जिसके चलते ग्लोबल वार्मिंग के दुष्प्रभाव घातक साबित हो रहे हैं। यही वजह है कि देश के रेगिस्तानी इलाकों में बाढ़ जैसी स्थितियां उत्पन्न हो रही हैं। ऐसे में पहाड़ी इलाकों और नदियों में खनन को लेकर देशव्यापी नीति बनाने की जरूरत है।